देश की राजधानी नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर लाल किले की शर्मनाक घटना और ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा और उत्पात के बाद दो माह से जारी किसान आंदोलन का हश्र भी क्या शाहीनबाग की तरह होगा? जिस शिखर तक यह आंदोलन पहुंच गया था, उसे फिर उसी बुलंदी तक पहुंचाना नामुमकिन भले न हो, लेकिन बेहद कठिन जरूर है। कारण कि इस आंदोलन के नेताओं की विश्वसनीयता और नेतृत्व क्षमता शक के घेरे में आ गई है।
हिंसा के दूसरे दिन ही दो किसान संगठन आंदोलन से अलग हो गए हैं। हालांकि आंदोलन में शामिल कुछ किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा के लिए सरकार पर ही आरोप लगाया है। इसमें कितनी सचाई है, कहना मुश्किल है, लेकिन आंदोलनकारियों पर आंदोलन के नेताओं का नियंत्रण नहीं रहा, यह सच है। एक सवाल यह भी है कि देश के गौरव के प्रतीक लाल किले पर निशान साहिब फहराए जाने और कई जगह बेकाबू हिंसा के बाद भी पुलिस ने बड़े पैमाने पर बलपूर्वक उसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की?
हालांकि ऐसा करने पर किसानों के और भड़कने का खतरा था। लेकिन जो कुछ घटा और उसके बाद जो घट रहा है, उससे लगता है कि आंदोलनकारी किसान वही गलती कर बैठे हैं, जिसका सरकार को इंतजार था। ट्रैक्टर परेड के दौरान हिंसा और उत्पात करने वाले लोग किसान थे या गुंडे, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन देश की राजधानी में हुई इस खुलेआम हिंसा ने किसान आंदोलन और उनकी जायज मांगों के प्रति आम आदमी की सहानुभूति को खो दिया है। और इसे फिर से पाना बहुत ही मुश्किल है।
किसान और उनकी मांगों के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए इस कालम में मैंने पहले भी लिखा था कि आंदोलनकारी किसान संगठन शुरू से कृषि कानून खत्म करने जैसा अतिवादी सिरा पकड़े हुए हैं, जो मोदी तो क्या कोई भी संवैधानिक सरकार शायद ही स्वीकार करेगी। आंदोलन के संचालक किसान नेताओं को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के उस प्रस्ताव पर सकारात्मक ढंग से विचार करना था, जिसमें कृषि कानूनों को डेढ़ साल स्थगित करने की बात कही गई थी।
यह सही है कि किसान आंदोलन के कारण मोदी सरकार दबाव में थी। क्योंकि परसों तक मोटे तौर पर यह आंदोलन सुव्यवस्थित और संकल्पित भाव से चलता लग रहा था। लगता है कि आंदोलन की इसी शक्ति ने किसान नेताओं को मुगालते में ला दिया। वरना गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड करने का कोई औचित्य नहीं था। क्योंकि गणतंत्र दिवस समूचे राष्ट्र के गौरव का दिवस है।
यह किसी सरकार, पार्टी अथवा संगठन का गौरव दिवस नहीं है और नहीं मांगे जताने या मनवाने का दिन है। ट्रैक्टर रैली किसी और दिन भी पूरी ताकत के साथ निकाली जा सकती थी। किसान अपना शक्ति प्रदर्शन कर सकते थे। गणतंत्र दिवस पर लगा कोई भी धब्बा पूरे राष्ट्र के माथे पर है, किसी व्यक्ति या सरकार विशेष के नहीं।
अतीत पर नजर डालें तो इस देश में ज्यादातर बड़े और निर्णायक किसान आंदोलन आजादी के पहले ही हुए हैं। आजादी के बाद दो ऐसे बड़े किसान आंदोलन हुए हैं, जिन्होंने देश की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का काम किया। ये दोनो आंदोलन भी वामपंथियों ने ही खड़े किए थे। पहला था आजादी के तुरंत बाद 1947 से 1951 तक तेलंगाना ( पूर्व की हैदराबाद रियासत) में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन।
इसमें छोटे किसानों ने ब्राह्मण जमींदारों खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था। लेकिन इसका असल फायदा रेड्डी और कम्मा जैसी सम्पन्न लेकिन पिछड़ी जातियों को हुआ। वो आज सत्ता की धुरी हैं। इसके बाद दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसमें किसानो की मुख्य मांग बड़े काश्तकारों को खत्म करना, बेनामी जमीनों के समुचित वितरण और साहूकारों द्वारा किया जाने वाला शोषण रोकने की थी।
इसके परिणामस्वरूप बंगाल में भूमि सुधार लागू हुए। लेकिन हिंसक होने के कारण यह नक्सली आंदोलन जल्द ही देश की सहानुभूति खो बैठा। लेकिन इसने राज्य में वामपंथियों के लिए मजबूत राजनीतिक जमीन तैयार की, जिसे दस साल पहले ममता बैनर्जी ने ध्वस्त किया। हालांकि देश में हिंसक नक्सलवाद अभी भी जिंदा है। इसके बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत ने अस्सी और नब्बे के दशक में कई किसान आंदोलन किए।
1988 में उन्होंने 5 लाख किसानों को एक सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर इकट्ठा कर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। अंतत: राजीव सरकार ने आंदोलरत किसानों के 35 सूत्री चार्टर को स्वीकार किया, जिसमे किसानों को गन्ने का ज्यादा मूल्य देने, तथा बिजली पानी के बिलों में छूट जैसे बिंदु शामिल थे। लेकिन ये आंदोलन हिंसक नहीं हुए थे। कृषि कानूनो के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश सिंह टिकैत उन्हीं के पुत्र हैं और उन पर दूसरे किसान नेताओं ने गंभीर आरोप लगाए हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलनों के बाद देश ने यह सबसे बड़ा किसान आंदोलन देखा। इसके लिए कई किसान संगठन एक छतरी तले साथ आए। जिन्हे विपक्षी दलों का समर्थन भी था। एजेंडा एक ही था, मोदी सरकार लागू तीनो कृषि कानून वापस लें, क्योंकि ये देश के किसानो के हितों के खिलाफ हैं।
बेशक, नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में संशय है, कुछ सवाल हैं, जिनके समाधानकारक उत्तर तो इन कानूनों के व्यवहार मे आने के बाद ही िमलेंगे। फिर भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए इन कानूनों को आधार बनाकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया। यकीनन आंदोलन देश में जनमानस की बेचैनी का बेरोमीटर होते हैं। लेकिन जब कोई आंदोलन वृहद स्वरूप ले लेता है, तब उसे नियंत्रित करना और उसकी सुई सही दिशा में रख पाना टेढ़ी खीर होता है।
किसान आंदोलन को मिलने वाला समर्थन, आर्थिक मदद, लोगों की सहभागिता, मांगे मंजूर होने तक दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने का संकल्प और सरकार को झुकाने की जिद कुछ सवालों को जन्म दे रही थी। लेकिन गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली निकालने की जिद और बाद में उसके अराजकता में बदल जाने ने आंदोलन की अब तक सफलता पर पानी फेर दिया।
आंदोलन के कुछ नेता दयनीय तरीके से उपद्रवी तत्वों से हाथ जोड़ते दिखे। सरकार और पुलिस भी असहाय दिखी। आंदोलनकारी नेताओं ने इस बात पर नहीं सोचा कि लाख- दो लाख ट्रैक्टरों पर सवार लोगों में असली किसान की पहचान कैसे होगी? और किसान के भेस में अराजक तत्व घुस आए, तब क्या होगा? अगर इस रैली ने देश की राजधानी को ही बंधक बना लिया तो क्या करेंगे? इससे आंदोलन के प्रति जन सहानुभूति बढ़ेगी या जो थी, वो भी खत्म हो जाएगी?
लाख टके का सवाल यह है कि अब इस आंदोलन का भविष्य क्या है? इतनी हिंसा और उत्पात के बाद क्या सरकार किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर फिर वैसे ही बैठने देगी? देगी तो इसका संदेश क्या जाएगा? सरकार उत्पातियों और लाल किले पर तिरंगे के बजाए दूसरा ध्वज फहराने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी? करेगी तो इसका किसानों पर क्या असर होगा? वो और भड़केंगे या फिर भड़का हुआ शोला धीरे-धीरे ठंडा होता जाएगा? सवाल कई हैं। हालांकि सरकार यह समझती है कि किसान आंदोलन को सीएए और एनआरसी विरोधी शाहीनबाग आंदोलन की तरह सीधे-सीधे साम्प्रदायिक खानो में नहीं बांटा जा सकता। ऐसा करने के कई गंभीर खतरे हैं।
लेकिन जो भी हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। राष्ट्रीय प्रतीकों की इस तरह अवमानना अस्वीकार्य है। वो भी गणतंत्र दिवस पर। इस घटना के बाद सरकार को कड़े फैसले तो लेने ही होंगे। उधर इस हिंसा ने किसान आंदोलन में दरार डाल दी है। दो किसान संगठनों द्वारा दुखी होकर अपना आंदोलन खत्म कर दिया है। बाकी भी कितने दिन एक रहेंगे, कहना मुश्किल है।
यूं केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि सरकार अब भी किसानों से बातचीत के लिए तैयार है। लेकिन किसान नेता उस नैतिक ताकत और आत्मविश्वास के साथ सरकार से बात कर सकेंगे क्या, जो दो दिन पहले तक थी? किसान नेता अब भी कृषि कानून वापसी की मांग पर अड़े रहते हैं तो इसके पीछे राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह जो भी हों, आम जनता में यही संदेश जाएगा कि आंदोलन का लक्ष्य सियासी हित साधना है न कि किसानों का हित रक्षण।
आगे का रास्ता आंदोलनकारियों के लिए ज्यादा कठिन है। कुछ लोगों का अभी भी मानना है कि गणतंत्र दिवस की हिंसा आंदोलनकारी किसानों का मनोबल नहीं तोड़ पाएगी। लेकिन इतिहास का सबक यही है कि बड़े आंदोलनों को संयम और व्यावहारिक सौदेबाजी की बुनियाद पर चलाया जाए तो सफलता की गुंजाइश ज्यादा रहती है। वरना मांगें कितनी ही जायज क्यों न हों, अगर अतिवादी और अडि़यल स्टैंड ही लिया जाएगा तो आंदोलन का पूरा महल ताश के पत्तों की माफिक ढहने का खतरा हमेशा रहता है। शाहीनबाग में हमने यही देखा था।
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